गुरुवार, 12 जून 2014

गर्मी से भी भयानक !

गर्मी से भी भयानक


… अभी कुछ साल पहले की बात है। घर में महीने-दो महीने में कोई न कोई रिश्तेदार बंधू आता ही रहता था। तब दादा की हमारे स्वागत तज्जो की गर्मजोशी (व्यग्रता ज्यादा) भरी मॉनिटरिंग देखते ही बनती थी। अरे …उसे श्रीखण्ड पसंद है , आते -आते चक्का लेते आना। खाने में दो सब्जी बना लो … रात की सब्जी अभी मत निकालो , मैं खा लूंगा , और हाँ … रोज की तरह दाल में मीठा मत डालना। उनके यहाँ नहीं डलता। इस अंतिम वाक्य पे मैं बहुधा झुंझला उठता। क्या दादा ! हम उनके लिए अपना खान पान का सिस्टम क्यों बदले ? कुछ नहीं , जो हम खाएंगे , वैसे ही पकेगा। ऐसे कहाँ के लाल लग रहे हैं उनमे।
मगर दादा का ''अतिथि सत्कार '' जोश काम न होता। वे अपनी छोटी से वीआईपी सूटकेस से फटाक से एक ५०० रूपए का नोट निकलते। ये रख ! अरे , कोई कुछ मांगता थोड़े है? पर दूसरों की सुख -सुविधा का ध्यान रखना मेजबान का फ़र्ज़ है। अब क्या बोलता !मुँह बंद। अच्छा ठीक है , हो जायेगा सब कुछ। बस आप हाइपर मत हो। और ये पैसे रखो अपने पास। पर वो काहे को सुनते। अरे उषा भी आ रही है न पहली बार। तो उसके लिए कोई ठीक -ठाक साड़ी ले आना। -पर दादा ! इस बार स्वर बीवी का होता। उषा दी , कहाँ पहनती है साड़ी। अमेरिकन बैंक में सीनियर मैनेजर है। पिछली बार गयी थी न मुंबई तो देखा उनके वॉर्डरोब में बीसियों
बनारसी-पोचमपल्ली पड़ी हैं। दीदी तो छूती भी नहीं !मै ड्रेस ले आती हूँ न ! ड्रेस मतलब (अब दादा की भवें तनी) ? ड्रेस मतलब जींस -टॉप ? हरगिज नहीं ! ! वो अपने घर में कुछ भी पहने , मगर हम अपने घर की परंपरा के हिसाब से ही देंगे गिफ्ट। साड़ी ही लाना बहू !
… लेकिन क्यों ? अब मै अड़ा। क्यों का क्या सवाल है भाई ! दादा उखड जाते।
देखिये दादा ! जब हम उपहार देते समय ''अपने घर की परंपरा '' को महत्त्व देते हैं तो फिर मेहमान को भोजन भी ''अपने घर के सिस्टम '' के हिसाब से क्यों नहीं होना चाहिए। अब दादा निरुत्तर थे। थोड़ी देर बाद ये विषय ख़त्म हुआ तो बात गर्मी के बढ़ते तेवरों पर केंद्रित हुई। शायद मैंने ही कहा -उफ़ क्या गर्मी है ? इस मौसम में मेहमान नवाज़ी। बाप रे , मुझे तो ''एकाँकी संकलन'' में पढ़े एकाँकी ''नया मेहमान'' की याद आरही है। दादा ने चुप होकर सहमति में सर हिलाया। फिर बोले -बेटा ! गर्मजोशी का ख़त्म होना गर्मी से भी भयानक होता है। उस समय तो ये बात मैंने भुला सी दी थी. अब दादा भी खैर रहे नहीं। मगर .... , मगर हर बार जब भी मैं किसी रिश्तेदार से मिलने उसके घर विजिट कर लौटता हूँ, या कोई स्नेही बांधव घर में आमद देता है ,पता नहीं क्यों ये वाकया ताज़ा हो जाता है ?
-विवेक मृदुल

kya karun